उदित राज के नेतृत्व में दिल्ली में दलितों-पिछड़ों का जुटान : निजीकरण के खिलाफ हुए गोलबंद



1- उदित राज के नेतृत्व में दिल्ली में दलितों-पिछड़ों का जुटान : निजीकरण के खिलाफ हुए गोलबंद

2. दलितों को नए आन्दोलन के विकल्प कि तलाश करनी होगी : उदित राज नई दिल्ली. 18 जून 2022

अनुसूचित जाति जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ के तत्वाधान में आज पूरे देश से बहुजन बुद्धिजीवी और अंबेडकरवादी कांस्टीट्यूशन क्लब, न दिल्ली में सम्मेलन हुआ। देश के चोटी के बुद्धजीवी प्रो दिलीप मंडल , प्रो रतन लाल, वरिष्ठ एडवोकेट मेहमूद पराचा .......... आदि ने विचार रखे। सर्व सम्मति से कहा गया कि आरएसएस मनुवादी व्यवस्था पुनर स्थापित करने में सफल होते दिख रहे हैं ताकि दलित, आदिवासी और पिछड़े गुलाम बन सके । संघ प्रमुख मोहन भागवत एवं मनमोहन वैद्य पहले ही कह चुके हैं कि आरक्षण समाप्त होना चाहिए . उच्च न्यायपालिका में गरीब, दलित, पिछड़ों के हितों और आदिवासियों के खिलाफ वाली मानसिकता के लोग बैठे हैं और कानून का गलत व्याख्यान करके पिछड़े वर्गों के अधिकार को समाप्त करते जा रहे हैं.

परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष राज ने आगे कहा कि देश कि संपत्तियों को सरकार औने –पौने भाव बेच रही है. इनका इरादा स्पष्ट दिखता है कि ये दलितों- पिछड़ों को वापस मनुस्मृति वाले दौर में ले जाना चाहते हैं. निजीकरण तो इस सरकार का बहाना है असल में इनका निशाना आरक्षण कि समाप्ति है. डॉ उदित राज ने आगे कहा कि यह षड्यंत्र संघ का है . शुरू में इन्होने संविधान को मानने से ही मना कर दिया था . 11 दिसंबर 1949 को सबने ना केवल संविधान को जलाया था बल्कि डॉ अम्बेडकर का पुतला भी फूंका था. दशकों तक तो इन्होने संविधान को माना ही नहीं , और जब देखा कि देश कि जनता मनुसमृति संविधान वाले प्रस्ताव को नहीं मानेगी तब इन्होने सत्ता प्राप्त करने के लिए नयी चाल चली और संविधान को मानने का ढोंग करने लगे , ताकि सत्ता प्राप्त कर ले. सत्ता प्राप्त भी कर लिया और अब इनका असली रूप निखरता जा रहा है. 2014 से पिछड़ों –दलितों और आदिवासियों का अधिकार ख़तम करना शुरू कर दिया. इन्होने नारा दिया कि – “ सबका साथ सबका विकास” लेकिन असल में “ अपना विकास और सबका विनाश” किया . नब्बे प्रतिशत नौकरियां समाप्त करके भारत को इन लोगों ने “बेरोजगारों का देश “ बना दिया.

प्रो दिलीप मंडल ने आगे कहा कि- जिस तरह से देश भर में चुनाव परिणाम आ रहे हैं . दलित राजनीति लगभग शून्य होती दिख रही है. दलितों को सत्ता में आने का सपना दिखाकर बरगलाया गया कि शासन में आयेंगे तो देने वाले बनेंगे. इस दिवा स्वप्न में दलितों ने अपना हक़ अधिकार भी खो दिया. वक़्त का तकाजा है कि इस ना पूरे होने वाले को छोड़कर भागीदारी के बारे में सोचें , अन्यथा जो थोडा बहुत बाख गया है, वो भी समाप्त हो जायेगा.