1997 में क्रमशः पांच आरक्षण विरोधी आदेश 30 जनवरी, 2 जुलाई, 22 जुलाई, 13 अगस्त एवं 29 अगस्त को जारी हुए तब इन्हें वापिस कराने के लिए अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ की स्थापना हुई। इसके बैनर तले पहली रैली 26 नवम्बर, 1997 को, दूसरी रैली 16 नवंबर, 1998 को, तीसरी रैली 13 दिसम्बर, 1999 को एवं चौथी रैली 11 दिसम्बर, 2000 को दिल्ली में हुई। इस रैली से पूरे देश में आंदोलन की लहर पैदा हुई और सरकार भी झुकी।
परिसंघ के इस प्रभावी आंदोलन के कारण आरक्षण विरोधी आदेश वापिस हो गए। इस तरह से सरकारी सेवाओं में आरक्षण के नुकसान को तो बचा लिया गया लेकिन दूसरी तरफ निजीकरण एवं उदारीकरण के कारण यह समाप्त होने लगा। सन् 2000 के आसपास केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों में लगभग 40 लाख दलित एवं आदिवासी कर्मचारी-अधिकारी कार्यरत् थे लेकिन अब वह संख्या घटकर लगभग आधी हो गयी होगी। अब निजी क्षेत्र में बिना आरक्षण के समाज की भागीदारी बरकरार नहीं रह सकेगी। जितना उत्थान सरकारी नौकरी में आरक्षण से हुआ, उतना किसी और योजना से नहीं। आरक्षण के जरिए 131 सांसद बनते हैं अर्थात् 131 परिवार का उत्थान। देश में 28 राज्य हैं, जिनमें कुल 4109 विधायक चुनकर आते हैं। कोटे के अनुपात में लगभग 900 विधायक बनेगें अर्थात् इतने ही परिवारों का भला। वर्तमान में लगभग 27 लाख कर्मचारी-अधिकारी सरकारी सेवा में हैं, अतः इतने परिवारों को मान-सम्मान एवं आर्थिक तरक्की। अब ज्यादातर नौकरियां निजी क्षेत्र में सृजित हो रही हैं, इसलिए इस नए संघर्ष का नाम दूसरी आजादी की लड़ाई देना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। दलित-आदिवासी जब निजी क्षेत्र में नौकरी के माध्यम से घुसेगें तो उन्हें व्यापार करने का तरीका भी मालूम होगा। यह सच्चाई है कि जो व्यापार करेगा वही राज करेगा। हमारा इतिहास इतना संघर्षशील एवं परिणाम दायक है कि शायद दूसरा कोई आंदोलन मुकाबले में है ही नहीं।
81वें संवैधानिक संशोधन के कारण संविधान में नई धारा 16 (4बी) जुड़ी जिससे रिक्त स्थानों (बैकलॉग पोस्ट) पर फिर से भर्ती शुरू हुई। इस 29 अगस्त 1997 के आदेश के अनुसार बैकलालॉग पदों पर भर्ती इसलिए नहीं की जा सकती थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण द्वारा भर्तियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इससे लाखों लोगों को लाभ पहुंचा और बेरोजगारों को भी नौकरियां मिलीं। यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह लड़ाई केवल दलित कर्मचारियों के लिए ही थी। 82वें संवैधानिक संशोधन के कारण संविधान की धारा 335 में आवश्यक परिवर्तन किया गया, जिससे 22 जुलाई 1997 का आरक्षण विरोधी आदेश वापिस हुआ। इस आदेश के अनुसार विभागीय परीक्षाओं में मूल्यांकन में जो छूट मिलती थी, वापिस हो गयी थी। उदाहरणार्थ इसके पहले आयकर विभाग में दलित निरीक्षक आयकर अधिकारी परीक्षा आसानी से पास करते थे और उच्च पद पर प्रमोशन के लिए सामान्य वर्ग से अधिक कतार में लग जाया करते थे। जब तक यह आदेश निरस्त नहीं हुआ, विभागों में खोजना पड़ता था कि कितने दलित कर्मी पदोन्नति के लिए परीक्षा पास कर चुके हैं। 85वां संवैधानिक संशोधन इसलिए किया गया कि 30 जनवरी 1997 के आरक्षण विरोधी आदेश ने दलित कर्मचारियों एवं अधिकारियों को वरिष्ठता के लाभ से वंचित कर दिया और उससे जुड़े अन्य फायदों को भी। हजारों की संख्या में रेल विभाग में कर्मचारियों की पदोन्नति होने लगी। हरियाणा, पंजाब सहित अन्य राज्यों में भी हाहाकार मच गया। जहां मनुवादी नौकरशाही हावी है और दलित आंदोलन कमजोर है, वहां को छोड़कर शेष स्थानों पर वरिष्ठता का लाभ पुनः मिलना शुरू हो गया। इसके अतिरिक्त हमारे ही आंदोलन के प्रयास से महाराष्ट्र और जम्मू एवं कश्मीर में आरक्षण कानून बना।
दो आरक्षण विरोधी आदेश अभी भी वापिस होने हैं। 2 जुलाई 1997 में पद पर आधारित नए रोस्टर प्रणाली को लागू किया गया। इसके अनुसार यह कहा गया कि दलित कर्मियों की उसी स्थान पर नियुक्ति या प्रमोशन होगा, जो आरक्षित बिन्दु (रोस्टर प्वाइंट) इनके हैं। पुराना रोस्टर 40 प्वाइंट का था, जिसमें प्रथम बिन्दु पर दलित और चैथे बिन्दु पर आदिवासी की भर्ती की जाती थी। इसे हटाकर नए रोस्टर में सातवें और 14वें बिन्दु पर दलितों की भर्ती की जाएगी, इस तरह से यदि किसी विभाग में पांच या छः पद हैं, तो उसमें एक भी दलित की भर्ती नहीं होगी, अगर 13 भर्तियां हैं, तो मात्र एक दलित की भर्ती हो पाएगी।
16 नवम्बर 1992 को मंडल जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पदोन्नति में आरक्षण दलितों को नहीं मिलना चाहिए। इस विसंगति को दूर करने के लिए 77 वां संवैधानिक संशोधन जून 1995 में किया गया। संशोधन की भाषा स्पष्ट रूप से कहती है कि पदोन्नति में आरक्षण प्रत्येक पद और स्तर पर दिया जाना चाहिए। 13 अगस्त 1997 को जब कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने इस सम्बन्ध में कार्यालय ज्ञापन जारी किया, तो उसमें कहा गया कि वर्तमान जैसा ही पदोन्नति में आरक्षण जारी रहेगा। अतः पदोन्नति में आरक्षण निचले स्तर तक ही मिलेगा, जैसा पहले था। संशोधन को यदि सही रूप से लागू किया जाए तो वरिष्ठ अधिकारी जैसे आई.ए.एस, आई.पी.एस., आई.आर.एस., डॉक्टर, इंजीनियर आदि जल्दी पदोन्नति पाते हुए अपने-अपने विभागों में टॉप पदों पर पहुंच जाएंगें, जैसे विभागाध्यक्ष, सचिव भारत सरकार, रेलवे बोर्ड का चेयरमैन या सदस्य आदि। इन संवैधानिक संशोधनों के विरूद्ध परोक्ष रूप से सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भी सामान्य वर्ग के संगठनों एवं नेताओं को उकसाया, ताकि वे अधिक से अधिक संख्या में तीनों संशोधनों के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकें। मुझे उस समय आश्चर्य हुआ जब सुप्रीम कोर्ट में इन याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी, तो देखा कि सामान्य वर्ग के कर्मचारियों एवं अधिकारियों की ओर से सैकड़ों याचिकाएं दाखिल की गईं थी और बड़े-बड़े वकील उनकी ओर से पैरवी कर रहे थे। दूसरी तरफ केवल हम ही पैरवी करने वाले थे, तो अफसोस हुआ कि दलित कर्मचारी कितने स्वार्थी हैं। चेतन और अचेतन अवस्था में ये सोचते हैं कि कोई न कोई इनके लिए संघर्ष कर ही रहा है, तो उन्हें आगे आने की क्या जरूरत है? इस तरह से लगभग सभी सोचने लगते हैं, परिणाम यह होता है कि कोई आगे नहीं आ पाता। दूसरा, इनमें गलतफहमी और अहंकार इतना है कि विभाग में अम्बेडकर जयंती मनाने या अन्य छोटे-मोटे कार्य करने से ही ये मान लेते हैं कि बड़ा काम कर दिया।
4 नवंबर, 2001 को परिसंघ के ही बैनर तले लाखों लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। इरादा यह था कि दस लाख लोग दिल्ली के रामलीला मैदान में इकट्ठा होकर एक महान सांस्कृतिक परिवर्तन का उद्घोष करेगें। उस समय की सरकार ने न केवल रामलीला मैदान की अनुमति को रद्द किया बल्कि पुलिस बल का प्रयोग करके दीक्षा में भाग लेने वालों को डराया-धमकाया। मान-सम्मान की लड़ाई कहने से ही पूरी नहीं होगी जब तक कि सांस्कृतिक परिवर्तन के द्वारा लोगों के विचार न बदले जाएं। वैचारिक परिवर्तन का बड़ा काम हमारे द्वारा ही हुआ और जिन्होंने मान-सम्मान के संघर्ष के लिए नारा दिया और लाखों कर्मचारियों-अधिकारियों का तन, मन और धन से समर्थन हासिल किया, उन्होंने बेवकूफ बनाने के सिवाय कुछ नहीं किया। लोग तो विचारों से गुलाम होते हैं। गुलाम मानसिकता बिना विचार बदले नहीं मिटायी जा सकती। झज्जर का मामला हो या अन्य उत्पीड़न के मामले उस पर हम ही लड़ते हैं। क्या किसी ने कभी सुप्रीम कोर्ट को घेरा है? इस साहसिक कार्य को हमने ही 10 अगस्त, 1998 को किया। हमारी आलोचना होती थी कि हमने राजनैतिक पार्टी बना ली। अगर बनाया था तो परिसंघ के मुद्दों के समर्थन के लिए ही। कुछ बात राजनैतिक दल से संभव है तो कुछ सामाजिक मंच से। राजनैतिक दल चलाने के लिए जो दांव-पेंच जैसे जात-पात, काले धन का प्रयोग इत्यादि मुझे न आया। इसलिए इंडियन जस्टिस पार्टी को खत्म करना पड़ा। दूसरी तरफ तथाकथित अम्बेडकरवादियों के द्वारा इतना दुष्प्रचार हुआ कि पार्टी को आवश्यक समर्थन नहीं मिल सका। संसद से आरक्षण जैसे मुद्दे उठते नहीं दिखे तो 2014 में भारतीय जनता पार्टी में इसलिए शामिल हुआ ताकि संसद पहुंच सकें। अंत में संसद में पहुंच ही गया और सांसद रहते हुए जितने प्रमुख मुद्दे आरक्षण और दलित उत्पीड़न पर मैंने उठाए उतने शायद सभी दलित सांसद मिलकर नहीं उठाए होगें। जिसको शक हो वह राष्ट्रीय कार्यालय या संसद की बेबसाइट से जानकारी कर सकता है। बेबाकी से संसद में उठाए गए मुद्दे से भाजपा परेशान हुई, इसीलिए 2019 में जब मुझे लोक सभा का टिकट नहीं दिया और राज्य सभा भेजने या अन्यत्र समायोजित करने की बात की तो मैंने भाजपा छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गया।
सन 2011 में अन्ना हजारे ने जब लोक पाल बनाने का आंदोलन छेड़ा तो सारा देश दबाव में आ गया था और अकेला परिसंघ ही था कि उसने चुनौती दी कि क्या लोकपाल में दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक भी स्थान पाएगें? उस समय की मांग के अनुसार संसद की कार्यवाही, सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री और सीबीआई तक सभी लोकपाल के अन्दर आने की बात थी। हमने लोकपाल बिल में आरक्षण की बात उठाई तो अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने इसे बनवाने में रूचि ही समाप्त कर दी। मान लिया जाए कि परिसंघ द्वारा अगर अवाज नहीं उठाई गई होती तो लोकपाल बन गया होता। तो संविधान के ऊपर लोकपाल बैठ जाता और इस देश में महिलाओं, दलितों एवं पिछड़ो की हालत खराब हो जाती। हमने बहुजन लोकपाल बिल बनाकर आरक्षण की मांग की और यह मांग पूरी भी हुई।
दलितों में स्वार्थवश जातिवाद व उपजातिवाद बढ़ा है, जिससे हमारी शक्ति विखंडित हुई है। आरक्षण, आउटसोर्सिंग, ठेकेदारी और विनिवेश के द्वारा खत्म किया जा रहा है। निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए संसद में प्राइवेट मेंबर बिल प्रतिस्थापित कर चुका हूं। राजनीति एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण के माध्यम से ही दलितों ने सामाजिक एवं आर्थिक प्रतिष्ठा प्राप्त की। जहां आरक्षण नहीं है जैसे – मीडिया, उद्योग, कला एवं संस्कृति, उच्च शिक्षा, उच्च न्यायपालिका, आयात-निर्यात, हाई-टेक आदि में आज भी दलितों ने कोई तरक्की नहीं की। अमेरिका में निजी क्षेत्र में आरक्षण अश्वेतों एवं मूलनिवासियों को मिल रहा है। वहां पर सरकार ने इनसे वस्तुएं एवं उत्पाद खरीदकर इन्हें उद्योगपति एवं व्यवसायी बना दिया है। इस अधिकार को लेने के लिए बड़ी कुर्बानियां देनी पड़ेगीं। सत्ता में व्यक्ति आता और जाता रहता है, जो अस्थायी है। निजीकरण और भूमण्डलीकरण की वजह से शिक्षा, नौकरी और धन-दौलत सब निजी हाथों में चला गया। हजारों अरबपति पैदा हो गए हैं। हर रोज अरबपति एवं खरबपति पैदा हो रहे हैं और उन्होंने अपने कालेधन की ताक़त से राजनीति को भी नियंत्रित कर लिया है। बड़े-बड़े माल, मंहगी गाड़ियां एवं मकान और लाखों हजार करोड़ का व्यापार आदि सभी के मालिक तथाकथित सवर्ण हो गए हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों को देखते हैं तो लगता ही नहीं कि दलितों एवं पिछड़ों की भागीदारी थोड़ी भी हो। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा देश ही न हो। क्योंकि आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक सत्ता पर इन्हीं का पूरा कब्जा हो गया है। अब से कुछ साल पहले स्थिति कम से कम कुछ बेहतर थी, जब जमींदार और उसके खेत पर काम करने वाले मजदूर के बच्चे एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। निजीकरण से सुविधाओं एवं अधिकारों में बड़ा फासला हो गया है।
जब देश का राष्ट्रपति दलित या आदिवासी नहीं था तब चर्चा होती थी कि एक बार दलित या आदिवासी राष्ट्रपति हो जाए तो संभव है कि कुछ परिवर्तन हो। ऐसी ही बात मुख्य न्यायाधीश के बारे में कही जाती थी। दलित और आदिवासी समाज से राष्ट्रपति और दलित मुख्य न्यायाधीश हुए भी तो भी खास परिवर्तन नहीं हुआ। सबसे बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री, सुश्री मायावती चार बार बन चुकी हैं तो क्या निजी क्षेत्र में आरक्षण मिल सका? यदि कोई दलित प्रधानमंत्री भी बन जाए तो भी जरूरी नहीं है कि इतना बड़ा स्थायी अधिकार प्राप्त ही हो जाए। हो सकता है, अन्यों से भी कम काम कर सकें, क्योंकि सत्ता में बने रहने की तमाम मजबूरियां होती हैं। जब इसके लिए देश भर में आंदोलन खड़ा करेगें तो हर पार्टियां वोट की लालच में झुकेंगीं और एक दिन यह अधिकार मिलकर रहेगा। मान-सम्मान और राजसत्ता प्राप्ति के नारे ने खूब आकर्षण पैदा किया और बड़े सपने दिखाए। लोगों ने खूब कुर्बानियां दीं। हो सकता है कि हमारा नारा बड़ा सपना दिखाने वाला न हो लेकिन हमारी लड़ाई राजनैतिक सत्ता हासिल करने से कम की नहीं है। डॉ. अम्बेडकर 26, अलीपुर रोड, दिल्ली में रहे। यहीं पर रहते हुए ‘बुद्ध और उनका धर्म’ ग्रंथ की रचना की व तमाम संघर्ष किया और यहीं पर उनका 6 दिसंबर, 1956 को परिनिर्वाण हुआ। बड़ी जद्दोजहद के बाद 2003 में भारत सरकार ने इसे खरीदा और राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया। डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाणभूमि सम्मान कार्यक्रम समिति बनाकर इसे गांधी समाधि के बराबर का दर्जा देने के लिए आंदोलन चलाया गया और सफलता मिली।
उपरोक्त के अतिरिक्त हमारा संघर्ष न्यायपालिका में आरक्षण, सफाई कर्मचारियों को समयबद्ध पदोन्नति, आरक्षण कानून बनवाकर 9वीं सूची में रखवाना, समान एवं अनिवार्य शिक्षा, समता मूलक समाज की स्थापना एवं राज्य सरकार की सेवाओं में 1950 के बाद आए दलितों को आरक्षण का लाभ दिलवाना आदि, जारी रहेगा। कहने और बोलने में कुछ लगता नहीं, लेकिन उपरोक्त अधिकारों को लेने के लिए कड़े संघर्ष करने पड़ेगें। संगठन की शाखाएं ब्लॉकों और गांवों तक बनानी होगीं। सदस्यता अभियान युद्धस्तर पर चलाना पड़ेगा। सवर्णों से कुछ तो सीखना चाहिए। अविवाहित और उच्च शिक्षा प्राप्त सैकड़ों लोग संघ के प्रचार में लगे हैं। सेवानिवृत्त कर्मचारी – अधिकारी संघ परिवार के तमाम संगठनों को संभाल रहे हैं। नाम व प्रसिद्धि के लिए कभी कोई टकराव सुनने में नहीं आता। हमारे तमाम सेवानिवृत्त कर्मचारी-अधिकारी अहंकार या तुच्छ सोच के कारण न समाज से लाभ ले पाते हैं और न ही दे पाते हैं। शोषित समाज को तो और भी समर्पित होना चाहिए। जगह-जगह पर प्रशिक्षण शिविर लगाए जाएं और ऐसे मिशनरी तैयार किए जाएं, जो समाज को बदलकर रख दें। आशावान होते हुए उम्मीद की जा रही है कि परिसंघ को सैकड़ों एवं हजारों मिशनरी एवं समर्पित नेता व कार्यकर्ता मिलेगें, जिससे एक नया समाज तैयार होगा। अब सोशल मीडिया का समय आ गया है और वैचारिक लड़ाई लड़ना आसान भी हो गया है। अखबार एवं चैनल हमारी खबरें तो दिखाती ही नहीं, लेकिन सोशल मीडिया के आने से एक अच्छा अवसर मिल गया है। ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्सएप, ईमेल से लाखों करोड़ों को जोेड़ा जा सकता है। हम गांव-गांव तक अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ का संदेश पहुंचाएं। सोसल मीडिया को न केवल मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करें बल्कि समाज परिवर्तन में भी।
जो अम्बेडकरवादी हैं, वे सामान्यतया भगवान बुद्ध को ही मानते हैं। भगवान बुद्ध ने कहा था कि जो कसौटी पर न खरी उतरे, उसे मत मानना उन्होंने यहां तक कहा था कि उनकी भी बात जब तक कसौटी पर खरी न उतरे न मानी जाए। ये उन साथियों के लिए हैं, जो अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ के साथियों के बलिदान को बिना जाने आलोचना करते रहते हैं। मेरी बड़ी आलोचना इस बात को लेकर हुई कि मैं भारतीय जनता पार्टी में क्यों शामिल हुआ था? क्या वहां जाकर चापलूसी किया ? या स्वयं के स्वार्थ की सिद्धि किया? बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर पूरे जीवन कांग्रेस को कोसते रहे। भारत-पाक बंटवारे के उपरांत जब उनकी संविधान सभा की सदस्यता समाप्त हुई तो कांग्रेस ने अपने महाराष्ट्र के मंत्री पीपुल जैकर का इस्तीफा दिलवाकर वहां से बाबा साहेब को चुनवाकर संविधान सभा में भेजा। उसके बाद बाबा साहेब को न केवल कानून मंत्री बनने का अवसर मिला बल्कि संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष भी बने। कांग्रेस में जाकर उन्होंने समाज के लिए किया तो जब मैंने भारतीय जनता पार्टी में जाकर समाज की लड़ाई लड़ी तो वह कैसे गलत थी? और अब कांग्रेस में रहते हुए दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों के मुद्दे उठा रहा हूं तो कैसे गलत है?
-डॉ. उदित राज